रस का शाब्दिक अर्थ
हिन्दी साहित्य में रस का शाब्दिक अर्थ है - आनंद ।
रस की परिभाषा
[1] किसी कविता को पढ़कर या किसी नाटक को देखकर हमारे मन में आनंद की लहरें उठने लगती हैं और हम मंत्रमुग्ध होकर झूमने लगते हैं । इसी अलौकिक आनंद को ,रस कहते हैं ।
[2] विभाव, अनुभाव, संचारीभाव और स्थायीभावों के संयोग से अभिव्यक्त रति ही रस के रूप मे परिणत हो जाता है ।
भरत मुनि के अनुसार विभानुभाव व्यभिचारी संयोगाद रस निष्पत्ति; ।
रस के अंग
रस के चार अंग माने गए हैं -
[1] स्थायीभाव [2] विभाव [3] अनुभाव [4] संचारीभाव ।
रस के भेद
रस के नौ भेद होते हैं और स्थायीभाव के भी नौ भेद होते हैं -
रस स्थायीभाव
1- श्रंगार रति
2 - हास्य हास
3- करुण शोक
4- रौद्र क्रोध
5- वीर उत्साह
6- भयानक भय
7 - वीभत्स जुगुप्सा
8- अदभुत विस्मय
9- शांत निर्वेद
कुछ विद्वान 'वात्सल्य' को दसवें रस के रूप में मानते हैं , इसका स्थायी भाव 'रति' है । जब रति बालक के प्रति होती है तो 'वात्सल्य' और जब भगवान के प्रति होती है तो 'भक्ति रस' की निष्पत्ति होती है ।
रस के अंगो का स्पष्टीकरण
[1] स्थायीभाव - सहृदय के हृदय में जो भाव स्थायी रूप में रहते हैं । उन्हें स्थायीभाव कहते हैं ।
[2] विभाव - जिसके कारण स्थायीभाव जाग्रत होता है, उसे विभाव कहते हैं । विभाव ही स्थायीभाव का कारण बनता है ।
विभाव के दो भेद होते हैं -
1- आलंबन विभाव 2- उद्दीपन विभाव
[3] अनुभाव - स्थायीभाव जागृत होने पर आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव कहते हैं ।
[4] संचारीभाव - स्थायी भावों साथ-साथ बीच -बीच में जो मनोभाव प्रकट होते हैं, उन्हें संचारीभाव कहते हैं । ये मनोभाव पानी के बुलबुलों की तरह बनते और बिगड़ते रहते हैं ।इसके विपरीत स्थायीभाव अंत तक बने रहते हैं
हिन्दी साहित्य में रस का शाब्दिक अर्थ है - आनंद ।
रस की परिभाषा
[1] किसी कविता को पढ़कर या किसी नाटक को देखकर हमारे मन में आनंद की लहरें उठने लगती हैं और हम मंत्रमुग्ध होकर झूमने लगते हैं । इसी अलौकिक आनंद को ,रस कहते हैं ।
[2] विभाव, अनुभाव, संचारीभाव और स्थायीभावों के संयोग से अभिव्यक्त रति ही रस के रूप मे परिणत हो जाता है ।
भरत मुनि के अनुसार विभानुभाव व्यभिचारी संयोगाद रस निष्पत्ति; ।
रस के अंग
रस के चार अंग माने गए हैं -
[1] स्थायीभाव [2] विभाव [3] अनुभाव [4] संचारीभाव ।
रस के भेद
रस के नौ भेद होते हैं और स्थायीभाव के भी नौ भेद होते हैं -
रस स्थायीभाव
1- श्रंगार रति
2 - हास्य हास
3- करुण शोक
4- रौद्र क्रोध
5- वीर उत्साह
6- भयानक भय
7 - वीभत्स जुगुप्सा
8- अदभुत विस्मय
9- शांत निर्वेद
कुछ विद्वान 'वात्सल्य' को दसवें रस के रूप में मानते हैं , इसका स्थायी भाव 'रति' है । जब रति बालक के प्रति होती है तो 'वात्सल्य' और जब भगवान के प्रति होती है तो 'भक्ति रस' की निष्पत्ति होती है ।
रस के अंगो का स्पष्टीकरण
[1] स्थायीभाव - सहृदय के हृदय में जो भाव स्थायी रूप में रहते हैं । उन्हें स्थायीभाव कहते हैं ।
[2] विभाव - जिसके कारण स्थायीभाव जाग्रत होता है, उसे विभाव कहते हैं । विभाव ही स्थायीभाव का कारण बनता है ।
विभाव के दो भेद होते हैं -
1- आलंबन विभाव 2- उद्दीपन विभाव
[3] अनुभाव - स्थायीभाव जागृत होने पर आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव कहते हैं ।
[4] संचारीभाव - स्थायी भावों साथ-साथ बीच -बीच में जो मनोभाव प्रकट होते हैं, उन्हें संचारीभाव कहते हैं । ये मनोभाव पानी के बुलबुलों की तरह बनते और बिगड़ते रहते हैं ।इसके विपरीत स्थायीभाव अंत तक बने रहते हैं
Wow
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